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Showing posts from August, 2013

ब्रह्मचारी की अन्तर्व्यथा

इक लौ देखा जब तुझे भरकर दिल में प्यार, इक लौ जल उठी प्रेम की, हरसा दिल इक बार। इक लौ मेरे प्रेम से तोड़ी तूने तार, इक लौ ही काफ़ी तुझे करने को रतनार। प्रेम मेरा शालीन था, द्वेष तेरा पथहीन; प्रेम मेरा शीतलमलय, तुम थी पयसविहीन। निष्फ़ल मेरा प्रेम है, जाना मैं रसलीन; जीवन मेरा हो गया, जल बिन जैसे मीन। कृमि नहीं, पशु नहीं, अधम नहीं मैं, पापी, व्यभिचारी, कामी भी नहीं मैं। फ़िर हे नारी! क्यों किया मुझको दुखारी? अब रहूँगा जन्मभर मैं ब्रह्मचारी।

अब वक्त ने बदला है पासा

अब वक्त ने बदला है पासा, बनना है लोहे से काँसा। काँसे से बनना है सोना, सोने से फिर कुन्दन होना। अब समय नहीं घबराने का, यूँ ही पत्थर बन जाने का। गलना होगा, जलना होगा; इन राहों पे चलना होगा। ये राहें राह दिखायेंगी, ये वक्त सुनहरा लायेंगी।।

जय हिन्द

है चाह कि ऐ माँ! हो तुझे फ़क्र भी मुझपर, ये जिन्दगी कुछ तेरे लिये काम भी आये। ये जिन्दगी है आज, रहे ये या न रहे, पर जिन्दगी में ऐसी एक शाम भी आये। जब बात छिड़े तेरे चहेतों की भारती, नीचे ही सही, उसमें मेरा नाम भी आये।।