ये खोज अंतर्मुखी है...
जिस दिन तक दूसरों के पीछे भागोगे,
उस दिन तक कभी अपना स्वत्व नहीं पाओगे।
जब थककर अंदर झांकोगे,
आप ही अपनी मंज़िल पा जाओगे।
ये खोज अंतर्मुखी है...
अंतर्तम के गहन सूक्ष्म में सत्य प्रकट है,
ढूंढ उसे जो लिया, कहाँ फिर कुछ संकट है।
पर तुम से उस तक की यात्रा ही जीवन है,
ढूंढ रहे चहुँओर जिसे, वो अंतर्मन है।
सदा छलावे व्याप्त रहे इस जग में ऐसे,
दिनकर को घेरे हों राहु केतु शत जैसे।
अंधकार का बादल पर जब छंट जाता है,
उसे छिपाना फिर कब संभव हो पाता है।
तुम दिनकर हो, तुम ईश्वर हो, तुम्ही विधाता,
तुम्ही प्रकृति हो, तुम रचना और तुम्ही रचयिता,
तुम्ही प्रकट हो, तुम्ही छिपे हो अपने अंदर,
तुम्ही बुरे हो, तुम्ही हो अच्छे मस्त कलंदर।
तुम ने ही था किया समर वो कुरुक्षेत्र का,
तुम ने ही तुम को गीता का ज्ञान दिया था।
तुम्ही थे बैठे बोध गया में ज्ञान की खातिर,
तुमने ही जग हेतु हलाहल पान किया था।
तुम से तुम तक और तुम्हारे बाहर भीतर,
तुम्ही व्याप्त हो, तुम्ही छिपे हो तुम से बचकर।
तुमने ही ये भेद बनाये थे माया के,
तुम्ही गए हो भूल उन्हें इस तरह प्रकट कर।
भरा प्रकाश तुम्हारे भीतर है दिनकर का,
संशय फिर भी भरा हुआ है दुनिया भर का।
उसे हटाओ, वो माया है, हट जाएगा,
सारा जग इस अंतर्तम में सिमट जाएगा।
नहीं भेद है, जहां भेद दिखता है हमको
भेद सको ये भेद, करो कुछ तीव्र जतन को..
फिर सब संभव, सब अपना ही हो जायेगा,
मैं-तुम का यह भेद सदा को खो जाएगा।
उस दिन तक कभी अपना स्वत्व नहीं पाओगे।
जब थककर अंदर झांकोगे,
आप ही अपनी मंज़िल पा जाओगे।
ये खोज अंतर्मुखी है...
अंतर्तम के गहन सूक्ष्म में सत्य प्रकट है,
ढूंढ उसे जो लिया, कहाँ फिर कुछ संकट है।
पर तुम से उस तक की यात्रा ही जीवन है,
ढूंढ रहे चहुँओर जिसे, वो अंतर्मन है।
सदा छलावे व्याप्त रहे इस जग में ऐसे,
दिनकर को घेरे हों राहु केतु शत जैसे।
अंधकार का बादल पर जब छंट जाता है,
उसे छिपाना फिर कब संभव हो पाता है।
तुम दिनकर हो, तुम ईश्वर हो, तुम्ही विधाता,
तुम्ही प्रकृति हो, तुम रचना और तुम्ही रचयिता,
तुम्ही प्रकट हो, तुम्ही छिपे हो अपने अंदर,
तुम्ही बुरे हो, तुम्ही हो अच्छे मस्त कलंदर।
तुम ने ही था किया समर वो कुरुक्षेत्र का,
तुम ने ही तुम को गीता का ज्ञान दिया था।
तुम्ही थे बैठे बोध गया में ज्ञान की खातिर,
तुमने ही जग हेतु हलाहल पान किया था।
तुम से तुम तक और तुम्हारे बाहर भीतर,
तुम्ही व्याप्त हो, तुम्ही छिपे हो तुम से बचकर।
तुमने ही ये भेद बनाये थे माया के,
तुम्ही गए हो भूल उन्हें इस तरह प्रकट कर।
भरा प्रकाश तुम्हारे भीतर है दिनकर का,
संशय फिर भी भरा हुआ है दुनिया भर का।
उसे हटाओ, वो माया है, हट जाएगा,
सारा जग इस अंतर्तम में सिमट जाएगा।
नहीं भेद है, जहां भेद दिखता है हमको
भेद सको ये भेद, करो कुछ तीव्र जतन को..
फिर सब संभव, सब अपना ही हो जायेगा,
मैं-तुम का यह भेद सदा को खो जाएगा।
Wow.
ReplyDeleteHow to follow your Blog
Regards
वाह!!!
ReplyDeleteलाजवाब अभि्व्यक्ति
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ReplyDeleteधन्यवाद, ये मात्र एक प्रयास था खुद को खोजने का, ये कविता मेरे भी हृदय के बहुत करीब है।
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