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ब्रह्मचारी की अन्तर्व्यथा

इक लौ देखा जब तुझे भरकर दिल में प्यार, इक लौ जल उठी प्रेम की, हरसा दिल इक बार। इक लौ मेरे प्रेम से तोड़ी तूने तार, इक लौ ही काफ़ी तुझे करने को रतनार। प्रेम मेरा शालीन था, द्वेष तेरा पथहीन; प्रेम मेरा शीतलमलय, तुम थी पयसविहीन। निष्फ़ल मेरा प्रेम है, जाना मैं रसलीन; जीवन मेरा हो गया, जल बिन जैसे मीन। कृमि नहीं, पशु नहीं, अधम नहीं मैं, पापी, व्यभिचारी, कामी भी नहीं मैं। फ़िर हे नारी! क्यों किया मुझको दुखारी? अब रहूँगा जन्मभर मैं ब्रह्मचारी।

अब वक्त ने बदला है पासा

अब वक्त ने बदला है पासा, बनना है लोहे से काँसा। काँसे से बनना है सोना, सोने से फिर कुन्दन होना। अब समय नहीं घबराने का, यूँ ही पत्थर बन जाने का। गलना होगा, जलना होगा; इन राहों पे चलना होगा। ये राहें राह दिखायेंगी, ये वक्त सुनहरा लायेंगी।।

जय हिन्द

है चाह कि ऐ माँ! हो तुझे फ़क्र भी मुझपर, ये जिन्दगी कुछ तेरे लिये काम भी आये। ये जिन्दगी है आज, रहे ये या न रहे, पर जिन्दगी में ऐसी एक शाम भी आये। जब बात छिड़े तेरे चहेतों की भारती, नीचे ही सही, उसमें मेरा नाम भी आये।।

चल अकेला, चल अकेला

सूरज की लालिमा से रात की कालिमा तक, पूरब से पच्छिम तक, उत्तर से दक्खिन तक, चलता चला जाता हूँ, बस चलता चला जाता हूँ। भूल गया राह मेरी, पथ नया बनाता हूँ, बस चलता चला जाता हूँ। क्या किया? क्यूँ किया? कब किया? कैसे किया? सोच नहीं पाता हूँ। क्या गलत? क्या सही? क्या गगन? क्या मही? बस प्रश्न नया पाता हूँ। चलता चला जाता हूँ। छोड़कर वह पथ पुराना, भूलकर सारा ज़माना, ज्ञान गीता का लिये जब एक पथ मैंने चुना था। सोचता था राह होगी ये सुखद, शीतल, सरल; पर बन चुका यह अग्निपथ, यह देखकर माथा धुना था। मानता हूँ, राह सारी एक सी होती नहीं, पर चलें जिसपे महाजन, पथ वही सबसे सही। था नहीं समझा कि जब गुरुदेव का एकला सुना था। रास्ता होगा, सही होगा, वही होगा, साथ चलने को मगर तैयार, कोई भी नहीं होगा। चल अकेला राह पर, तज मोह, माया, कामना; होगी मंजिल तेरे सर, पहले तू अपना मन बना। हारने के बाद बाजी जीतते हैं सब यहाँ, चल अकेला, चल अकेला; पथ तू अपना खुद बना। होगी मंजिल तेरे सर, पहले तू अपना मन बना।। 

गर बदलना है, तो बदलेंगे, मगर खुद को

दस दिशायें घूमकर, पर्वतशिखर को चूमकर, नद-ताल सब को पारकर, अधर्म का संहार कर, क्या पा गये प्रभु आप तुम? माना कि स्वामी हो जगत के, करते हो तुम चिन्तन चिरंतन, पर कहाँ बदला है कुछ? संसार के इस पार से आकाश के उस पार तक, पसरा हुआ अंधकार है। सत्य, शुचि; सब मूल के प्रतिकूल, हर तरफ़ पापाचार है। अज्ञान है, अभिमान है, अपमान है; पर नहीं संज्ञान है।। दुनिया छली है, छल रही है, अन्याय, शोषण के सहारे चल रही है। अच्छाइयों का मान-मर्दन हो रहा है, लगता है यूँ, भगवान जैसे सो रहा है।। पर सोचता हूँ, कर रहे क्या खाक हम, भगवान है तू, तो तुम्हारे बाप हम। छलते हैं तुझको, या खुदी को छल रहे हैं, जिस आग को माचिस दी, उसमें जल रहे हैं।। अब वक्त है, संज्ञान हो हमको हमारी जात का, जो कर रहे हैं, हर एक उस आघात का। गर बदलना है, तो बदलेंगे, मगर खुद को; ना होगी दुनिया की दुत्कार दुनिया में, रहेंगे जब तलक हम यार दुनिया में। रहेंगे जब तलक हम यार दुनिया में।।