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Showing posts from September, 2007

काहे रे मन धीर ना धरे

काहे रे मन धीर ना धरे, जो बस आवे सो ही करे। मन-ही-मन ये सहज मुसकावे, मन-ही-मन किस-किस पे मरे।। मन बस होय राम, सिय भायी, कान्हा ने रुक्मिणी भगायी। मेरो मन भी यही विचरै, जदपि बिबस कि करे तो क्या करे।। बालकाल सखियाँ अति भायीं, तरुणाई सब जग सुखदायी। पर म्हारी छबि पे कोऊ ना मरै, अब हमहूँ कितने जतन करैं।। मोरी प्रेम ब्यथा सुनौ, राधा नागरि सोइ। हमरे किये तो कछू ना हुइहै, अब तुम्हरे किये ही होइ।।

जीवन-संग्राम

रात अब जाने को है, फ़िर सुबह आने को है। ढल गया था कल जो सूरज, आग बरसाने को है।। जो अभी था डूबता सा, आ गया अब नाव पर। तप्त रेती की लपट से, घने वन की छाँव पर।। कब कहीं रोके रुकी है, अग्नि, जल की धार से। बच सका कब कोई जीवन, सर्प-विष-फ़ुँकार से।। जूझकर लड़ना समय से, ज़िन्दगी का काम है। मौत को भी दे चुनौती, ज़िन्दगी संग्राम है।।