ब्रह्मचारी की अन्तर्व्यथा

इक लौ देखा जब तुझे भरकर दिल में प्यार,
इक लौ जल उठी प्रेम की, हरसा दिल इक बार।
इक लौ मेरे प्रेम से तोड़ी तूने तार,
इक लौ ही काफ़ी तुझे करने को रतनार।

प्रेम मेरा शालीन था, द्वेष तेरा पथहीन;
प्रेम मेरा शीतलमलय, तुम थी पयसविहीन।
निष्फ़ल मेरा प्रेम है, जाना मैं रसलीन;
जीवन मेरा हो गया, जल बिन जैसे मीन।

कृमि नहीं, पशु नहीं, अधम नहीं मैं,
पापी, व्यभिचारी, कामी भी नहीं मैं।
फ़िर हे नारी! क्यों किया मुझको दुखारी?
अब रहूँगा जन्मभर मैं ब्रह्मचारी।

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