वो नज़र दो-चार थी, या इश्क की रफ़्तार थी,
चौदहवीं का चाँद थी, पहली नज़र का प्यार थी;
जो भी थी वो दिलनशीं, अपनी समझ के पार थी।
हम मिले पहली दफ़ा, जब शाम थोदी सर्द थी,
देखकर उसको वहीं ठिठके हुए से रह गये;
चाहते कहना बहुत थे, मन ही मन में कह गये।
वो मगर मशगूल थी अपनी ही सी कुछ बात में,
हम खड़े थे दूर और वो थी सखी के साथ में।
फ़िर ये दिखना रोज़ की आदत में शामिल हो गया;
उसकी इक मुस्कान का शागिर्द ये दिल हो गया।
चाहते तो थे पर मिल ना सके,
ना हिम्मत हुई कि कुछ कह सकें।
फ़िर एक दिन किस्मत रंग लाई,
उसने हमें देखा और वो मुस्कुराई।
किसी बहाने से ही सही जान-पहचान हो गई,
और फ़िर वो भीड़ में ना जाने कहाँ खो गई।
फ़िर हम मिले एक अरसे बाद,
और अबकी जो मिले तो मिलते ही रहे।
दिल में अरमानों के नित-नये फूल खिलते ही रहे।
खैर छोड़िये इसे यहीं विराम देते हैं,
इस कविता को क्या नाम दें, ये तो सोचा नहीं,
पर यहाँ लौट के जरूर आयेंगे।
आना ही पड़ेगा,
आखिर कविता जो अधूरी है।
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