वो नज़र दो-चार थी, या इश्क की रफ़्तार थी, चौदहवीं का चाँद थी, पहली नज़र का प्यार थी; जो भी थी वो दिलनशीं, अपनी समझ के पार थी। हम मिले पहली दफ़ा, जब शाम थोदी सर्द थी, देखकर उसको वहीं ठिठके हुए से रह गये; चाहते कहना बहुत थे, मन ही मन में कह गये। वो मगर मशगूल थी अपनी ही सी कुछ बात में, हम खड़े थे दूर और वो थी सखी के साथ में। फ़िर ये दिखना रोज़ की आदत में शामिल हो गया; उसकी इक मुस्कान का शागिर्द ये दिल हो गया। चाहते तो थे पर मिल ना सके, ना हिम्मत हुई कि कुछ कह सकें। फ़िर एक दिन किस्मत रंग लाई, उसने हमें देखा और वो मुस्कुराई। किसी बहाने से ही सही जान-पहचान हो गई, और फ़िर वो भीड़ में ना जाने कहाँ खो गई। फ़िर हम मिले एक अरसे बाद, और अबकी जो मिले तो मिलते ही रहे। दिल में अरमानों के नित-नये फूल खिलते ही रहे। खैर छोड़िये इसे यहीं विराम देते हैं, इस कविता को क्या नाम दें, ये तो सोचा नहीं, पर यहाँ लौट के जरूर आयेंगे। आना ही पड़ेगा,...
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Showing posts from 2011
प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया
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हमने आँखों में सौ सपने सजाये , उसे देखा और हम मुस्कराये। गलती बस इतनी की उसे अपना मान बैठे, जो बूझे नहीं अब तक वही सपना मान बैठे। करते भी तो क्या, ये दिल ही तो है, और फ़िर दिल तो बच्चा है जी। हम समझे दिल्लगी ही सही; जो भी है अच्छा है जी। माना हम अच्छे थे, सच्चे थे; लेकिन अकल से एकदम कच्चे थे। दिल्ली को हमारी ये दिल्लगी रास नहीं आई, लग गई नज़र। लड़की ने पता नहीं दिल लगाया भी या नहीं, कमबख्त हम पर तो आिशकी का फ़ितूर था। हम थक गये उसके घर के चक्कर लगाते-लगाते; और वो बोली तुम हमको ज़रा भी रास नहीं आते। अब इश्क का भी अज़ब दस्तूर है, जब लगने पे आती है, तो लग ही जाती है। ज़ख्म बहुत गहरा हुअ, वक्त लगता सा था ठहरा हुआ; ऐसे फ़ँसे मायाज़ाल में कि न माया मिली न छाया। हमको अपने इस हाल पे जमकर रोना आया। रोये, खूब रोये और क्यूँ न रोते; अपने ही करम धो रहे थे। तय कर लिया प्यार, मोहब्बत, इश्क का मीठा-मीठा रिस्क अब नहीं सहना; इतने टार्चर से बेहतर है चैन से अकेले रहना।।
बीती ताहि बिसार दे...
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आज फ़िर वही बात याद आती है, फ़िर से वो दिन-रात याद आती है। हर बात भुला सकता है मन किन्तु, हर बिसरी हुई बात फ़िर याद आती है। सब कुछ दिख रहा है साफ़-साफ़, फ़िर आँखें क्यूँ धुँधलके में रहना चहती हैं। खुश रहना कितना सरल सा है; फ़िर क्यूँ ये पलकें बरबस ही बहना चाहती हैं। मन में एक अजब सा सन्तोष है, चित्त में एक सुलगती सी ज्वाला है। जो पीयूष-सुधा बन जीवन दे सकता था; वो बन बैठा विष का प्याला है। खैर अब जो भी है, जैसा भी है, उसे उसी रूप में स्वीकार करना है। राह में फ़ूल आयें या काँटे; सबको समभाव से पार करना है।।
मृत्युपर्व
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मृत्यु सत्य है जीवन का, या जीवन मरता नहीं कभी। कहने को आदर्श खोखले, निन्दा करता नहीं कभी।। मेरा जीवन मेरा है, ईश्वर! फ़िर तेरा, कया तेरा; जब नहीं मानता ईश्वर को, फ़िर क्यूँ कहता ईश्वर मेरा। एक देव एक दानव मन में सदा बसाये हम रहते, जब जिसकी मर्जी चलती अपना-अपना दोनों कहते। सत्य कटु है, किन्तु अटल है, दानव मरता नहीं कभी; हाँ, सम्भव है देव कदाचित मर जाये। दानव हर पल हर क्षण तत्पर रहता है, ये भी सम्भव है देव कभी कुछ कर जाये। मैं नहीं कह रहा दानव शक्तिशाली है, पर क्यूँ हमने देवों से शत्रुता पाली है। अन्धा दानव कितनी भी शक्ति दिखा जाये, पर ये भी तय है कि प्रकाश भी आएगा। माना ताकत है दानव की चतुराई में, पर कब तक वो भी देव से खैर मनाएगा। सतयुग, त्रेता,द्वापर से कलि तक हम निकले, उतना ही आगे देवों से दानव निकले। पहले देवों में भी मानव सम्मानित था; अब तो मानव, दानव से भी दानव निकले। पर वाह विधाता! तू भी कम चालाक नहीं, तेरे आगे चल सकी किसी की धाक नहीं। जैसे-जैसे हम एक-एक युग बढ़ते गये; तुम मानव की आयु कम, और कम करते गये। है मृत्यु, विजयदशमी देवों की दानव पर,...