तदात्मानं श्रजाम्यहम्

दो गृहस्थाश्रमश्रमी तरुवृंद मध्य अवगुंठित हुए,
मुष्टिकाप्रहार के परिणाम से किञ्चित मर्म प्रस्फुटित हुए
अरुण नेत्र, वारिज नयन, दोनों का रक्तरंजित तन;
मन क्रुद्ध श्वास अवरुद्ध हाहाकार से पूरित हुआ वन॥

यह सम्पूर्ण कर्ताकर्ममय प्रकरण न, अपितु प्रयोज्य था,
इस युद्ध में विजयीसदॄश बालि मरण के योग्य था
वानरदल अधीप सुग्रीव इस युद्ध में असमर्थ था,
यदि पराजय निश्चित ही थी, तब युद्ध का क्या अर्थ था॥

पर अर्थ था इस युद्ध का कि अनर्थ रोका जा सके,
सुग्रीव की अर्धांगिनी सुग्रीव वापस पा सके।
इस अर्थ पूरण हेतु प्रभु श्रीराम ने किया बाण संधान,
वध हुआ अब बालि का दिग्गज थे प्रत्यक्ष प्रमाण॥

दिग्-दिगन्त हर्षित हुए, पुष्पवृन्द वर्षित हुए,
अधर्म का वध जान सब अधर्मी प्रतिकर्षित हुए॥
हे प्रभु, मम सम दीन नहिं, नहिं तुम सम दीनानाथ
मेरी भव-बाधा हरौ कृपासिन्धु रघुनाथ॥

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