बीती ताहि बिसार दे...
आज फ़िर वही बात याद आती है, फ़िर से वो दिन-रात याद आती है। हर बात भुला सकता है मन किन्तु, हर बिसरी हुई बात फ़िर याद आती है। सब कुछ दिख रहा है साफ़-साफ़, फ़िर आँखें क्यूँ धुँधलके में रहना चहती हैं। खुश रहना कितना सरल सा है; फ़िर क्यूँ ये पलकें बरबस ही बहना चाहती हैं। मन में एक अजब सा सन्तोष है, चित्त में एक सुलगती सी ज्वाला है। जो पीयूष-सुधा बन जीवन दे सकता था; वो बन बैठा विष का प्याला है। खैर अब जो भी है, जैसा भी है, उसे उसी रूप में स्वीकार करना है। राह में फ़ूल आयें या काँटे; सबको समभाव से पार करना है।।