मेरी प्रियतमा
आज एक ख्वाब देखा है मैंने, ख्वाब अपनी आँखों में सपने बोने का, और फ़िर लम्हा-दर-लम्हा उन सपनों को सींचते हुए, एक नयी सुबह का इन्तजार करना। बड़ा अजीब है यह सब, कुछ रोज़ पहले उससे मैं पहली बार मिला था, यहीं किसी छाँव के नीचे, फ़िर कुछ मुलाकातों में ना जाने क्या हो गया। आज कुछ नही सुहाता बगैर उसके, हर पल जाने क्यूँ उसकी ही याद सताती है, कुछ दिन पहले तक जिसे मैं जानता भी नहीं था, आज वही मेरी हर पल की साथी है। पर यह तो केवल अर्ध-सत्य है, पूर्ण-सत्य तो तब होता जब वो भी कुछ कहती, नहीं जानता हूँ क्या है उसके मन में, कुछ है भी या कुछ भी नही। पर शायद हिम्मत भी नही है यह पूछ पाने की, किस हक से मैं उससे ये पूछूँ। कोई तो अधिकार नही मेरा उस पर, पर मेरा तो खुद पर भी अधिकार नही रहा अब। मेरी आँखों में बस उसका सपना है, मेरे होठों पर उसकी हँसी। मेरा हर पल अब बस उसका ही है, वही है मेरी प्रियतमा उर्वशी।।