वो सुबह कब आयेगी...
सुबह जब ओस गहराती है, फिर वही बात याद आती है, वो चाँद का ढलना, वो सूरज का आना, वो कनखियों से फूलों का मुस्कुराना, पर क्यों नहीं लगता ये सब उतना सुहाना, जितना तब था, क्यों फूल चुभते हैं हृदय के पोरों पर, क्यों सूरज हरे कर देता है घाव सीने के, क्यों सुई सी चुभती है ये सुबह, क्या था तुम्हारी उस मुस्कान मे, कि जब तुम मुस्कुराती थी, ये सारा आसमान अपना सा लगता था, जब तुम पलकें झपकाती थी, लगता था जैसे सारा जहान मेरे साथ है, पर फिर एक दिन अचानक तुम मुझे छोड़कर चली गयी, तुम नही आयी, पर तुम्हारी खबर आयी, ऐसी भी क्या मजबूरियाँ थी, कि मुझसे बेवफ़ाई की तुमने, अब तुम तो जैसे तैसे जी ही रही होगी, पर मैं जानता हूँ अपनी ज़िन्दगी को, बिना साँस के जीना क्या होता है, बिना एहसास के जीना क्या होता है, पर फिर भी जी रहा हूँ मैं, बस एक आस के साथ, उस सुबह के इंतज़ार में।