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Showing posts from September, 2006

मातृभूमि

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हे माँ!तुझसे बढकर ना कोई अपना, अब जागा हूँ नींद से देख रहा था सपना। करुणा ममता अपनेपन में तू अनुपम है, दया प्रेम सौहार्द्र का तू संगम है।। जब मैं रोया तूने मुझको गले लगाया, जब भी मुस्काया तूने है साथ निभाया। चला गिरा दौड़ा लातें भी मारी तुझपर; पर न्योछावर करती रही तू प्रेम निरन्तर।। अगर कोई संसार में बढ़कर तुझसे, माँ, है, भले विधाता कहे ये मुझसे झूठ कहा है। अपना पेट काटकर मुझको रोटी देती, बदले में मुझसे ना है कुछ भी लेती। जीवन भर तू हर पल मुझको अपनाती है, बाद मृत्यु के काम मातृभूमि आती है।। तेरी मिटटी का सोंधापन मुझको भाता , तेरा निर्मल जल है सबकी प्यास बुझाता। उसी मातु पर कोई विदेशी आँख गड़ाये, तेरी रक्षा ना पुत्र तेरा कर पाये। माँ डरना मत तू इतने पुत्रों की माँ है, बाल तेरा छू जाये किसी में शक्ति कहाँ है।। जिस-जिस ने आघात तुझे माँ पहुँचाये हैं, वो तेरा मातृत्व नहीं जान पाये हैं। पुत्र सुपुत्र कुपुत्र भले जैसा जो भी हो, पर भारत माँ ममता का आगार तुम्ही हो। अगर दोबारा इस धरती पर जीवन पाऊँ, भारत माँ हर बार तेरा बेटा कहलाऊँ।।

तदात्मानं श्रजाम्यहम्

दो गृहस्थाश्रमश्रमी तरुवृंद मध्य अवगुंठित हुए, मुष्टिकाप्रहार के परिणाम से किञ्चित मर्म प्रस्फुटित हुए अरुण नेत्र, वारिज नयन, दोनों का रक्तरंजित तन; मन क्रुद्ध श्वास अवरुद्ध हाहाकार से पूरित हुआ वन॥ यह सम्पूर्ण कर्ताकर्ममय प्रकरण न, अपितु प्रयोज्य था, इस युद्ध में विजयीसदॄश बालि मरण के योग्य था वानरदल अधीप सुग्रीव इस युद्ध में असमर्थ था, यदि पराजय निश्चित ही थी, तब युद्ध का क्या अर्थ था॥ पर अर्थ था इस युद्ध का कि अनर्थ रोका जा सके, सुग्रीव की अर्धांगिनी सुग्रीव वापस पा सके। इस अर्थ पूरण हेतु प्रभु श्रीराम ने किया बाण संधान, वध हुआ अब बालि का दिग्गज थे प्रत्यक्ष प्रमाण॥ दिग्-दिगन्त हर्षित हुए, पुष्पवृन्द वर्षित हुए, अधर्म का वध जान सब अधर्मी प्रतिकर्षित हुए॥ हे प्रभु, मम सम दीन नहिं, नहिं तुम सम दीनानाथ मेरी भव-बाधा हरौ कृपासिन्धु रघुनाथ॥

क्योंकि है सपना अभी भी ...

मैं नहीं हूँ जानता क्यूँ आदमी आया यहाँ, मैं न हूँ यह जानता क्यूँ मैं हूँ भरमाया यहाँ। पर छुपी है एक अभिलाषा मेरे मन में कहीं; सिर्फ़ आना और जाना है मेरा मकसद नहीं। गर नहीं यह लक्ष्य तो फ़िर लक्ष्य क्या है, देखकर बोला वो मुझसे प्रश्न तो उत्तम कहा है। पर नहीं क्या जानते तुम; सत्य तेरे सामने है, पर नहीं पहचानते तुम। मैं न जाना सत्य क्या है, बस रहा यह देखता, हर कृत्य क्या है। और शायद देखकर भी ना दिखा हो, सत्य मेरे हर तरफ़, हर एक जगह हो। मुस्कराया वो मेरा परमात्मा, बस यही ना जान पाये तुम अभी तक। जानते भी तो भला पहचानते कैसे; आवरण इतने पहन बैठे हो तुम। तुम मेरा एक अँश ही तो हो, पर कहाँ तुम मानते हो सत्य यह। तुम रमे हो व्यर्थ पापाचार में, हर तरफ़ हो रहे अत्याचार में। पर कहाँ देखा है तुमने, तोड़कर अपने चतुर्दिक का छलावा। अब एक युग के बाद तुमको कहाँ वह याद होगा; पर मुझे सब याद है, तुम नहीं हो, मैं अकेला हुँ मगर, याद आता है कि सब कुछ खो गया है; आज का मानव कि वापस सो गया है। पर अकेला ही सही,शेष हूँ मैं, युद्धरत मैं, तुम्हारा मैं। क्योंकि है सपना अभी भी; जाग जाओ है ...