चल अकेला, चल अकेला
सूरज की लालिमा से रात की कालिमा तक, पूरब से पच्छिम तक, उत्तर से दक्खिन तक, चलता चला जाता हूँ, बस चलता चला जाता हूँ। भूल गया राह मेरी, पथ नया बनाता हूँ, बस चलता चला जाता हूँ। क्या किया? क्यूँ किया? कब किया? कैसे किया? सोच नहीं पाता हूँ। क्या गलत? क्या सही? क्या गगन? क्या मही? बस प्रश्न नया पाता हूँ। चलता चला जाता हूँ। छोड़कर वह पथ पुराना, भूलकर सारा ज़माना, ज्ञान गीता का लिये जब एक पथ मैंने चुना था। सोचता था राह होगी ये सुखद, शीतल, सरल; पर बन चुका यह अग्निपथ, यह देखकर माथा धुना था। मानता हूँ, राह सारी एक सी होती नहीं, पर चलें जिसपे महाजन, पथ वही सबसे सही। था नहीं समझा कि जब गुरुदेव का एकला सुना था। रास्ता होगा, सही होगा, वही होगा, साथ चलने को मगर तैयार, कोई भी नहीं होगा। चल अकेला राह पर, तज मोह, माया, कामना; होगी मंजिल तेरे सर, पहले तू अपना मन बना। हारने के बाद बाजी जीतते हैं सब यहाँ, चल अकेला, चल अकेला; पथ तू अपना खुद बना। होगी मंजिल तेरे सर, पहले तू अपना मन बना।।