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गर बदलना है, तो बदलेंगे, मगर खुद को

दस दिशायें घूमकर, पर्वतशिखर को चूमकर, नद-ताल सब को पारकर, अधर्म का संहार कर, क्या पा गये प्रभु आप तुम? माना कि स्वामी हो जगत के, करते हो तुम चिन्तन चिरंतन, पर कहाँ बदला है कुछ? संसार के इस पार से आकाश के उस पार तक, पसरा हुआ अंधकार है। सत्य, शुचि; सब मूल के प्रतिकूल, हर तरफ़ पापाचार है। अज्ञान है, अभिमान है, अपमान है; पर नहीं संज्ञान है।। दुनिया छली है, छल रही है, अन्याय, शोषण के सहारे चल रही है। अच्छाइयों का मान-मर्दन हो रहा है, लगता है यूँ, भगवान जैसे सो रहा है।। पर सोचता हूँ, कर रहे क्या खाक हम, भगवान है तू, तो तुम्हारे बाप हम। छलते हैं तुझको, या खुदी को छल रहे हैं, जिस आग को माचिस दी, उसमें जल रहे हैं।। अब वक्त है, संज्ञान हो हमको हमारी जात का, जो कर रहे हैं, हर एक उस आघात का। गर बदलना है, तो बदलेंगे, मगर खुद को; ना होगी दुनिया की दुत्कार दुनिया में, रहेंगे जब तलक हम यार दुनिया में। रहेंगे जब तलक हम यार दुनिया में।।